भारत जैसे देश में जहां ट्रैफिक का दबाव लगातार बढ़ रहा है, वहां हॉर्न एक आम आदत बन चुकी है। सड़क पर चलते समय कोई भी ध्यान देगा तो यह साफ नजर आता है कि हर कुछ सेकंड में कहीं न कहीं हॉर्न की आवाज़ सुनाई देती है। लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि यह आदत कितनी आवश्यक है और कहां यह अनुचित हो सकती है? विशेषकर जब बात स्कूलों और अस्पतालों के पास की आती है, तो यह सवाल और भी अहम हो जाता है कि क्या वहां हॉर्न बजाना सही है? इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि भारत में स्कूल और अस्पतालों के पास हॉर्न बजाना कानूनन किस हद तक सही है और व्यवहारिक दृष्टिकोण से यह क्यों गलत माना जाता है।
शुरुआत करते हैं कानूनी पहलू से। मोटर वाहन अधिनियम और भारत सरकार द्वारा लागू किए गए नियमों के अनुसार, स्कूल, अस्पताल, कोर्ट और ऐसे अन्य “साइलेंस ज़ोन” घोषित क्षेत्रों में हॉर्न बजाना प्रतिबंधित है। इन क्षेत्रों के बाहर आम तौर पर “Silence Zone” या “No Honking Zone” के बोर्ड लगे होते हैं। यह कानून इसलिए बनाया गया है ताकि बच्चों, बीमार लोगों और ध्यान केंद्रित कर रहे व्यक्तियों को अनावश्यक ध्वनि प्रदूषण से बचाया जा सके। 1999 में भारत सरकार द्वारा अधिसूचना जारी कर साइलेंस ज़ोन की परिभाषा स्पष्ट की गई थी जिसमें स्कूल और अस्पतालों को प्रमुखता दी गई थी। लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल कानून बनाना पर्याप्त है?
वास्तविकता में, भारत की सड़कों पर नियमों की अनदेखी एक सामान्य बात है। कई बार देखा गया है कि ट्रैफिक सिग्नल पर, स्कूलों के गेट के पास और यहां तक कि अस्पताल की दीवार के ठीक बाहर भी लोग बेधड़क हॉर्न बजाते हैं। इसकी एक बड़ी वजह है ट्रैफिक में अधीरता और जागरूकता की कमी। बहुत से लोगों को पता ही नहीं होता कि वे जिस स्थान पर हॉर्न बजा रहे हैं वह साइलेंस ज़ोन में आता है। वहीं कुछ लोग जानबूझकर नियमों की अनदेखी करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि कोई देखने या पकड़ने वाला नहीं है।
हॉर्न का मकसद होता है सामने वाले वाहन चालक या राहगीर को संकेत देना कि गाड़ी आ रही है। लेकिन जब यह आदत में बदल जाए, तो यह शोर बन जाती है। स्कूलों के पास जब हॉर्न बजाया जाता है, तो इसका असर बच्चों के मानसिक विकास पर पड़ता है। कई शोध यह साबित कर चुके हैं कि शोरगुल से बच्चों की एकाग्रता भंग होती है, वे पढ़ाई में पिछड़ सकते हैं और उनमें चिड़चिड़ापन आ सकता है। कल्पना कीजिए कि एक बच्चा जो कठिन गणित का सवाल हल कर रहा है, अचानक तेज हॉर्न की आवाज सुनता है—उसका ध्यान टूट सकता है और वह मानसिक तनाव में आ सकता है।
इसी तरह, अस्पतालों में रोगी विश्राम कर रहे होते हैं। डॉक्टर ऑपरेशन थिएटर में ध्यान केंद्रित कर रहे होते हैं। यदि उस समय बाहर से लगातार हॉर्न की आवाज आती रहे, तो इससे न केवल डॉक्टरों की कार्यक्षमता पर असर पड़ता है बल्कि मरीजों की सेहत पर भी। एक हृदय रोगी या उच्च रक्तचाप से पीड़ित व्यक्ति के लिए अचानक तेज आवाज़ जानलेवा भी साबित हो सकती है।
WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) की रिपोर्ट के अनुसार, लगातार 85 डेसीबल से ऊपर की ध्वनि प्रदूषण से कानों को नुकसान पहुंच सकता है और मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। भारत के कई शहरों में हॉर्न की आवाज़ 100 डेसीबल से ऊपर मापी गई है, जो गंभीर चिंता का विषय है। खासकर जब ये आवाजें स्कूलों और अस्पतालों के पास सुनी जाती हैं, तो यह न केवल कानूनी उल्लंघन है बल्कि मानवीय संवेदनाओं के खिलाफ भी है।
अब सवाल यह है कि समाधान क्या हो? सबसे पहले, लोगों को जागरूक करना जरूरी है। ट्रैफिक पुलिस और शहरी प्रशासन को चाहिए कि स्कूल और अस्पतालों के पास बड़े और साफ शब्दों में “No Honking” के बोर्ड लगाए जाएं और वहां CCTV कैमरे लगाकर उल्लंघन करने वालों पर ई-चालान जारी किया जाए। साथ ही, ड्राइविंग लाइसेंस जारी करते समय उम्मीदवार को यह सिखाना चाहिए कि कब हॉर्न बजाना जरूरी है और कब नहीं।
दूसरा कदम यह हो सकता है कि वाहन कंपनियां अपने उत्पादों में हॉर्न की आवाज़ को सीमित करें। कई देशों में नियम है कि वाहन का हॉर्न एक तय डेसीबल से अधिक तेज नहीं होना चाहिए। भारत में भी ऐसे नियम मौजूद हैं लेकिन उनका पालन नहीं होता। यदि कंपनियों को अनिवार्य किया जाए कि वे साइलेंट हॉर्न विकसित करें, तो यह एक बड़ा बदलाव ला सकता है।
तीसरा और सबसे जरूरी पक्ष है सामाजिक जागरूकता। जब तक आम जनता स्वयं यह नहीं समझेगी कि हॉर्न कब उपयोग करना है और कब नहीं, तब तक कोई कानून या बोर्ड प्रभावी नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, यदि एक चालक अस्पताल के बाहर हॉर्न बजाने से पहले यह सोचता है कि इससे किसी मरीज की नींद टूट सकती है या दर्द बढ़ सकता है, तो वह स्वेच्छा से ऐसा करने से बचेगा। यही सोच हमें अपने समाज में विकसित करनी होगी।
कई शहरों में अब “No Honking Campaigns” चलाई जा रही हैं। जैसे मुंबई, पुणे, दिल्ली और बेंगलुरु में ट्रैफिक पुलिस ने कई बार यह पहल की है कि कुछ दिनों तक शहर में अनावश्यक हॉर्न बजाने वालों पर जुर्माना लगाया जाए। इन अभियानों से काफी हद तक बदलाव आता है लेकिन यह स्थायी नहीं हो पाता क्योंकि लोगों को केवल डर के आधार पर नियम नहीं मानने चाहिए, उन्हें समझ के साथ निभाना चाहिए।
स्कूल प्रशासन और अस्पतालों को भी चाहिए कि वे अपने आसपास ट्रैफिक नियंत्रण की पहल करें। जैसे स्कूल के समय में ट्रैफिक वॉर्डन खड़े करें, अस्पताल के बाहर बोर्ड लगाए जाएं और वाहन चालकों को जागरूक करने के लिए माइक पर घोषणाएं की जाएं। सामूहिक प्रयासों से ही यह समस्या सुलझ सकती है।
हमें यह भी समझना चाहिए कि अनावश्यक हॉर्न बजाना केवल दूसरों के लिए नहीं, स्वयं वाहन चालक के लिए भी नुकसानदायक हो सकता है। तेज हॉर्न से ड्राइवर का मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है, तनाव बढ़ सकता है और प्रतिक्रिया की गति प्रभावित हो सकती है। कई बार हॉर्न से दूसरों को डराकर दुर्घटना को न्योता दिया जाता है। जबकि धैर्य से वाहन चलाना और सही समय पर हॉर्न का प्रयोग करना एक जिम्मेदार नागरिक का परिचायक है।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि भारत में स्कूल और अस्पतालों के पास हॉर्न बजाना न केवल कानूनन अपराध है बल्कि यह नैतिक रूप से भी गलत है। इसका असर बच्चों की पढ़ाई, मरीजों की सेहत और पूरे वातावरण की शांति पर पड़ता है। इसके लिए केवल सरकार या प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हर नागरिक को अपना कर्तव्य निभाना होगा। हमें यह तय करना होगा कि हम कैसा समाज बनाना चाहते हैं—एक ऐसा समाज जो संवेदनशील है या ऐसा जो केवल शोरगुल और अधीरता से भरा है।
शांति की ओर पहला कदम तब उठेगा जब हम अपनी गाड़ी का हॉर्न केवल जरूरत पड़ने पर ही बजाएंगे, और विशेष रूप से स्कूलों और अस्पतालों के पास एकदम चुप रहेंगे।